भारत में जितने भी विद्वान हुए उन सब का मानना था कि सारा ज्ञान का आधार वेद है इस कारण व्याकरण का भी आदि स्रोत वेद ही है इसमें किसी प्रकार का संदेह प्रकट नहीं करना चाहिए “मुखम व्याकरण स्मृतम्” इस वचन के अनुसार व्याकरण को वेद का अंग भूतमुख के रूप से प्रतिपादित किया गया है व्याकरण वास्तव में उसे कहते हैं जिसके द्वारा अनंत शब्दों में से साधु शब्दों को प्रकृति प्रत्यय विवेचन के साथ अलग करके ज्ञान करावे इसके अनेक प्रकार को व्युत्पत्तियां किए गए हैं। महाभासष्यकर पतंजलि ने इसे साब्दानुशासन शब्द से संबोधित किया है। व्याकरण शास्त्रों की परंपरा में व्याकरण के द्वारा प्रक्रिया आर्थिक और परिष्कार के रूप से तीन प्रकार के ग्रन्थ की रचना की गई है। शब्दों की सिद्धि प्रक्रिया अर्थात् प्रकृति प्रत्यय के साथ यह प्रकृति है यह प्रत्यक्ष है इस प्रकार शब्द का विवेचन जिसमें हो उसे प्रक्रिया नाम दिया गया कहते हैं। जैसे प्रक्रिया कौमुदी, सिद्धांत कौमुदी, लघु सिद्धांत कौमुदी आदि ग्रन्थ को मान सकते हैं। आर्थिक ग्रन्थ के रूप में व्याकरणभूषणसर, वैयाकरणसिद्धांतलघुमंजूषा, वैयाकरणसिद्धांतमंजूषा, परमलघु मंजुषा आदि ग्रन्थ को माना जा सकता है। जीन ग्रन्थों में दार्शनिक विषयों का विचार किया गया है परिष्कार ग्रंथ हैं। प्रौढ़मनोरमा, लघु शब्देंदुशेखर, वृहद्शाब्देंदुशेखर आदि इन ग्रंथों में नव्य नैयायिक शैलियों में अनेक प्रकार के परिष्कार किए गए हैं , उन्हें शेखारादियों की टीकाओं में देखा व पढ़ा जा सकता है। व्याकरण के विशेषताओं का उल्लेख करते हुए महावैयाकरण वाक्यपदीय ग्रंथ के रचयिता भर्तृहरी ने कहा है कि व्याकरण न केवल प्रक्रिया के लिए ही आवश्यक है किंतु यह तो मनुष्य को मोक्ष भी प्रदान करता है और वाणी का शोधन के साथ-साथ ही सभी विद्याओं में श्रेष्ठ और पावन भी है। व्याकरण वाणी गत दोषों को दूर करता है, जैसे शरीर गत रोगों को औषधि दूर करती है व्याकरण का कार्य साधु शब्दों के दोषों का ज्ञान कराना है साधु शब्दों का ज्ञान जिसको है वही व्यक्ति साधु शब्दों का प्रयोग कर सकता है जब साधु शब्द का प्रयोग करता तब उसे पुण्य प्राप्त होता है तत्पश्चात अंतःकरण पवित्र होता है, उसके बाद उसे मुक्ति प्राप्त होती है। व्याकरण को अत्यंत ही उपादेय और श्रेष्ठ मानकर ही विद्वानों ने कहा है यद्यपि अनेक शास्त्रों को पढ़ लिया है फिर भी व्याकरण पढ़ना आवश्यक है, क्योंकि स्वजन श्वजन ना हो जाये, सकल शकल ना हो जाये, सकृत सकृत न हो जाये जिसने व्याकरण पढ़ा उसको ऐसा नहीं हो सकता है यद्यपि प्राक्वर्ती वैयाकरणों ने अनेक व्याकरण ग्रन्थों की रचना की है। उनमें इंद्र, चंद्र, काशकृत्स्न, आपिशलि, शाकटायन, पाणिनि, अमर और जैनेंद्र इन आठों को ले सकते हैं इन वैयाकरणों के द्वारा लिखित व्याकरण के नाम इस प्रकार हैं। ऐन्द्र, चान्द्र, काशकृत्स्न, कौमार शाकटायन, सारस्वत आपिशलि एवं पाणिनि ये सारे व्याकरण इस समय प्रचलित नहीं है इस समय तो पाणिनि द्वारा लिखित व्याकरण ही सब जगह प्रचलित है यह व्याकरण सर्वतो भावेन बहुत ही उत्तम है पाणिनि व्याकरण का एक महत्वपूर्ण अंग कात्यायन द्वारा रचित वार्तिक पाठ भी है पतंजलि जी द्वारा इस वार्तिक पाठ को लेकर महाभाष्य ग्रंथ लिखा गया है जिस संस्कृत वांगमय में अद्वितीय स्थान है याथोत्तर मुनीनां प्रामान्यं नाम के अनुसार इनका भैया करने में सर्वोपरि स्थान है
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