शब्द और अर्थ के सहभाव को साहित्य कहते हैं। लोकहितकर कवियों के कृत्यों को साहित्य कहते हैं। “डुधाञ्“ धारणपोषणार्थ क्रिया पद से “क्त“ प्रत्यय का विधानोपरान्त “दधातेर्हि“ पाणिनी जी के इस सूत्र से क्रियापद के धकार के स्थान पर हकार आदेश करने पर ‘‘हित’’ शब्द सिद्ध होता है। हितेन सह सहितम्, तस्य भावः साहित्यम्, व्युत्पत्ति लभ्य साहित्य पद से जगत धारण पोषण स्वरूप अर्थ ही प्राप्त होता है, ऐसा मनीषियों ने कहा है । व्यास, वाल्मीकि एवं कालिदास इत्यादि कवियों के वचनों से किनके लोकहित की सिद्धि नहीं होती है, जैसे अंगूर के मध्य विद्यमान मधुर रस की प्राप्ति से जन साधारण आनन्दित होता है, वैसे ही भगवद् अंश स्वरूप उन महाकवियों की मधुर वाणियों को प्राप्त कर मानव मात्र सुखानुभूति कर अपने भाग्य की सराहना करते हैं एवं उन महाकवियों की वाणी का मधुर रसपान तथा श्रवण करके बहुतों के दुखों का नाश और अपना कल्याण हुआ है । साहित्य सेवा परायणों के लिए कुछ भी प्राप्त करना कठिन नहीं है, साहित्य केवल लोकहित ही नहीं अपितु साहित्य समाज का दर्पण भी है । साहित्य स्वाध्याय परायण पुरुष एक देश स्थित होकर भी संपूर्ण विश्व का ज्ञान कर सकता है । साहित्य रसमय होने के कारण पठन-पाठन में सहज ही लोक की प्रवृत्ति होती है । अन्य शास्त्रों में बुद्धि प्रयास अधिक होती है, किंतु साहित्य कठिन न होने से लोक की अनायास ही प्रवृत्ति होती है । इसीलिए साहित्य लोकाकर्षक, हितकर एवं चतुर्विध पुरुषार्थ को प्रदान करने वाला होने के कारण सदा सर्वथा सेवनीय है ।
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