श्रीरंगलक्ष्मी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय

वृन्दावन, मथुरा , उत्तर प्रदेश, भारत

(शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार एवं केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जनकपुरी, नई दिल्ली की आदर्श योजना के अंतर्गत)

न्याय

न्याय

प्रमाणों के द्वारा विषयों का परीक्षण करना न्याय है। प्रमा के करण को प्रमाण कहते हैं। प्रमा यथार्थ अनुभव को कहते हैं। व्यापार विशिष्ट असाधारण कारण को करण कहते हैं। इस प्रकार यथार्थ अनुभव के व्यापार विशिष्ट असाधारण कारण को प्रमाण कहते हैं।      यथार्थ अनुभव चार प्रकार के होते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति, और शाब्द के भेद से। प्रमाण भी चार प्रकार के होते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द के भेद से । दर्शन दो प्रकार का होता है-आस्तिक और नास्तिक के भेद से। जो दर्शन वेद के प्रामाण्य को स्वीकार करता है उसे आस्तिक दर्शन कहते हैं। जो दर्शन वेद के प्रमाण्य को स्वीकार नहीं करता है उसे नास्तिक दर्शन कहते हैं। आस्तिक दर्शन छ प्रकार के होते हैं-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमान्सा और वेदान्त के भेद से । नास्तिक दर्शन तीन प्रकार के होते हैं-चार्वाक, जैन और बौद्ध के भेद से। बौद्ध दर्शन चार प्रकार का होता है- वैभाषिक, सौत्रान्तिक माध्यमिक एवं योगाचार के भेद से। इस प्रकार दर्शन 12 प्रकार के होते हैं। इन्हीं दर्शनों में न्याय भी एक दर्शन है। इसमें प्रमाणों के द्वारा विषयों का परीक्षण किया जाता है। प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा घटपटादि का प्रत्यक्ष किया जाता है। अनुमान प्रमाण के द्वारा अनुमिति की जाती है। उपमान प्रमाण के द्वारा उपमिति की जाती है। शब्द प्रमाण के द्वारा शाब्द बोध किया जाता है। इस प्रकार से चारों प्रमाणों के द्वारा विषयों का परीक्षण करना न्याय कहलाता है।

डॉ. लक्ष्मी प्रसाद गौतम

अतिथि संकाय, न्याय